मणिपुर में हिंसा फिर से भड़क उठी है। राज्य, खासकर चुराचांदपुर और इंफाल, में हिंसा की जो आग धधकी थी उसके चलते दर्जनों मौतों और लोगों के विस्थापन को अभी महज तीन हफ्ते हुए हैं। चिंता की बात यह है कि मणिपुर हाईकोर्ट के 27 मार्च के आदेश (जिसमें यह चाहा गया कि मैतेई को राज्य की अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया जाए) के खिलाफ शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन विकृत रूप ले चुका है। कुकी-ज़ोमी समुदाय के नुमाइंदों, जिनमें भाजपा के विधायक भी शामिल हैं, ने ‘अलग प्रशासन’ की मांग शुरू कर दी है। हालात बिगड़ कर यहां तक नहीं पहुंचने चाहिए थे। अंतर-सामुदायिक संबंध ऐसे हैं कि गाहे-बगाहे तनाव भड़क उठते हैं और वर्षों तक तनाव बना रहा है, लेकिन मई में जो आग धधकी है वह दिखाती है कि पहाड़-घाटी संबंध पहले से अधिक खराब हो चुके हैं, और मैतेई व कुकी-ज़ोमी समुदायों में मौजूद शरारती तत्वों व कट्टरपंथियों द्वारा की गई हिंसा पर लगाम लगाने में सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। कुछ हद तक, यह भाजपाई मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की अगुवाई वाली राज्य सरकार की विवाद से ऊपर उठ पाने और कुछ खास समुदायों के खिलाफ निष्पक्ष ढंग से काम कर पाने में अक्षमता का नतीजा था। सरकार के तथाकथित पोस्ते की खेती- विरोधी अभियानों, जिन्हें पहाड़ निवासी कुकी-ज़ोमी के खिलाफ कदम के रूप में देखा गया, ने उनका गुस्सा भड़काया, जबकि हाई कोर्ट की एकल पीठ द्वारा बिना ठीक से सोचे-समझे दिये गये आदेश (संविधान पीठ के 23 साल पुराने फैसले का उल्लंघन करने के नाते यह टिप्पणी खुद भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई चंद्रचूड़ ने की) ने स्थिति को बिगाड़ दिया। सरकार चुराचांदपुर और इंफाल में लगातार बढ़ रही हिंसा रोकने में अक्षम रही, जिससे मौजूदा शासन की नाकाबिलियत जाहिर होती है।
दंगा-प्रभावित क्षेत्रों में अर्द्धसैनिक व पुलिस बलों की गश्त बढ़ाकर, विस्थापित लोगों को मदद मुहैया कर और उग्रवादी धड़ों का प्रभाव कम करके, राज्य सरकार को केंद्र की मदद से सामान्य हालात की बहाली में जुटना होगा। जो विस्थापित हुए हैं मध्यम अवधि में उनकी घर वापसी संभव बनाने के लिए, सुरक्षा बलों की मदद से एक योजना पर भी ठीक ढंग से काम करना होगा। ऐसा नहीं करना दोनों पक्षों के उन अंध-जातीयतावादियों के हाथों में खेलने जैसा होगा जो असहमतियों, तालमेल न बैठने और अलगाव पर जोर देते हैं। लंबी अवधि में यह सब राज्य के लिए विनाशकारी साबित होगा। केंद्र सरकार घटनाओं के इस तरह का मोड़ लेने के प्रति बेपरवाह नहीं रह सकती। कुछ अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की तरह मणिपुर को अपने नागरिकों के बीच एक नागरिक चेतना को बढ़ावा देने की जरूरत है, ताकि वे खुद को अलगाने के लिए जातीय (एथनिक) पहचानों से ऊपर उठ सकें। सामुदायिक नेताओं और राज्य सरकार के नुमाइंदों के बीच भरोसा कमजोर पड़ने के मद्देनजर, मणिपुर के भीतर व बाहर के सिविल सोसाइटी सदस्यों के लिए यह जरूरी हो गया है कि वे अंतर-सामुदायिक संबंधों को दोबारा बनाने का काम अपने हाथ में लें और नुमाइंदगी की भूमिका में अंध-जातीयतावादियों व उग्रवादी समूहों को काबिज न होने दें।
COMMents
SHARE