प्रतीक और मर्मः नए संसद भवन का उद्घाटन और उससे आगे

नए संसद भवन के उद्घाटन में धार्मिक कर्मकांड मुनासिब नहीं

May 30, 2023 11:04 am | Updated 11:04 am IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा रविवार को नये संसद भवन का उद्घाटन बिल्कुल उसी शैली में हुआ जिसमें उन्हें महारत हासिल हो चुकी है: यानी हर मौके का इस्तेमाल एक खास तरह की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए करना। और, यह बात उनके कई आलोचकों को समस्याजनक लगती है। श्री मोदी ने नए भवन की सौंदर्य सैद्धांतिकी को भारत की असीम विविधता, उसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और उफान मारती आकांक्षाओं के प्रतिनिधित्व के रूप में पेश किया। सर्वधर्म प्रार्थना सभा इस समारोह का हिस्सा थी, लेकिन इसमें जरा भी शक नहीं कि हिंदू कर्मकांड बाकी सब पर हावी रहे। सेंगोल (तमिलनाडु के शैव संप्रदाय की ओर से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री को भेंट किया गया राजदंड) के इर्द-गिर्द एक चालाकी भरी कहानी बुन करके, वर्तमान व्यवस्था ने भारत की गणतांत्रिक संप्रभुता के सिद्धांतों को नए ढंग से गढ़ने की कोशिश की है। सेंगोल दैवीय अधिकार का प्रतीक था और अब यह जन प्रतिनिधियों की सभा में स्थापित हो चुका है। यह प्रतीकवाद भारत के राजनीतिक केंद्र के साथ तमिलनाडु के संपर्क को मजबूत बनाता है, और भारतीय जनता पार्टी इसका राजनीतिक लाभ लेना चाह रही है। गौरतलब है कि उद्घाटन के दिन ‘हिंदुत्व’ के संस्थापक वी. डी. सावरकर की जयंती भी थी। समारोह की शैली व उसके मर्म में भारतीय गणतंत्रवाद को एक नये संस्करण में ढालने की चाहत साफ नजर आ रही थी।

नया भवन थोड़ा-सा ध्यान करीब आ रही प्रतिनिधित्व की उस चुनौती की ओर भी खींचता है जिसका सामना अगले दशक में भारत करेगा। एक देशव्यापी परिसीमन वर्तमान जनसंख्या के अनुरूप प्रतिनिधित्व का नये सिरे से आवंटन करेगा। इससे संसद में दक्षिणी राज्यों के भाषाई अल्पसंख्यकों की आवाज में दूसरों के मुकाबले उल्लेखनीय कमी आएगी। जो राज्य अपनी जनसंख्या में ठहराव ला चुके हैं, उनके प्रतिनिधित्व में (दूसरों की बढ़ोतरी को अनदेखा करते हुए) संख्यात्मक कमी न आने पाए, इसके लिए लोकसभा और राज्यसभा का आकार संभवत: बढ़ाया जाएगा। लेकिन, भारतीय राजनीति के विभिन्न भौगोलिक खंडों में बंटे होने के चलते, कई क्षेत्रों में पहले से मौजूद राजनीतिक बेदखली की भावना शांत करने के लिए यह शायद काफी नहीं होगा। भाजपा अपना संसदीय बहुमत अपने गढ़ों से हासिल करती है, जबकि कई राज्य उसके प्रभाव से अछूते हैं। भाजपा के पास 38 फीसदी वोटों के बूते, वर्तमान लोकसभा की 55 फीसदी सीटें हैं। परिसीमन के बाद यह असंतुलन और गंभीर हो जाएगा। अपने मौजूदा ‘कैचमेंट एरिया’ (मुख्यतया जहां से उसे वोट हासिल होते हैं) से बाहर के क्षेत्रों और समुदायों तक पहुंचने की भाजपा की कोशिश स्वागत योग्य है। लेकिन केंद्र व भाजपा को भारत के क्षेत्रीय असंतुलनों से निपटने के लिए और अधिक गंभीरता, संवेदनशीलता व परिपक्वता दिखानी होगी। इसके लिए उन्हें महज प्रतीकवाद से आगे बढ़कर कुछ करना होगा।

Top News Today

Comments

Comments have to be in English, and in full sentences. They cannot be abusive or personal. Please abide by our community guidelines for posting your comments.

We have migrated to a new commenting platform. If you are already a registered user of The Hindu and logged in, you may continue to engage with our articles. If you do not have an account please register and login to post comments. Users can access their older comments by logging into their accounts on Vuukle.