पिछले हफ्ते, भारत के बीमा क्षेत्र के नियामक के प्रमुख ने 2047 तक सभी का बीमा करने के इरादे को केन्द्र में रखते हुए प्रतिकूल झटकों के जोखिमों के बरक्स आबादी के एक बड़े हिस्से को बीमा के दायरे में लाने का एक नया खाका पेश किया। भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आईआरडीएआई) द्वारा देश के “व्यापक सुरक्षा अंतराल” को पाटने के मकसद से किए जा रहे इस “यूपीआई-जैसे पल” का केन्द्रबिंदु एक सरल ‘ऑल-इन-वन’ बीमा पॉलिसी की परिकल्पना है। जीवन और आम बीमाकर्ताओं के वास्ते तैयार की जा रही यह समग्र ‘बीमा विस्तार’ योजना लोगों को चिकित्सकीय आपात स्थिति, दुर्घटना, चोरी या परिवार में किसी की मृत्यु की स्थिति में शीघ्र मौद्रिक सहायता प्रदान करेगी। बीमा के फायदों के बारे में जागरूकता अभी भी काफी कम होने के मद्देनजर, नियामक ने हर घर की महिला मुखिया को संकट के समय ऐसी योजना के काम आ सकने के बारे में शिक्षित करने के लिए एक महिला-नेतृत्व वाली ग्राम सभा-स्तरीय पहल का प्रस्ताव दिया है। ‘बीमा सुगम’ नाम का एक नया प्लेटफॉर्म बीमा कंपनियों एवं वितरकों को एकीकृत करेगा ताकि ग्राहकों को शुरुआत में एक ही छत के नीचे सारी खरीदारी (वन-स्टॉप शॉप) का अनुभव दिया जा सके और आगे चलकर दावों के निपटारे संबंधी सेवा को सुविधाजनक बनाया जा सके। नियामक का मानना है कि राज्यों की डिजिटल मृत्यु रजिस्ट्रियों को इस प्लेटफॉर्म से जोड़ने से जीवन बीमा के दावों को चंद घंटों या एक दिन में ही निपटाया जा सकेगा।
पूंजी संबंधी जरूरतों से जुड़े मानदंडों को आसान बनाने और नई कंपनियों को बाजार में प्रवेश देने व आला एवं विशेष क्षेत्रों की अनछुई जरूरतों को पूरा करने की इजाजत देने के लिए एक विधायी पहल भी विचाराधीन है। एक समय मरणासन्न हालत में पहुंच चुके सार्वजनिक क्षेत्र की अगुवाई वाले इस उद्योग में निजी कंपनियों के प्रवेश के दो दशक बाद, भारत की बीमा पैठ (जीडीपी के बरक्स प्रीमियम भुगतान का अनुपात) बढ़ी है और यह 2001-02 में 2.7 फीसदी से बढ़कर 2021-22 में 4.2 फीसदी हो गई है। दरअसल, 2009-10 में 5.2 फीसदी के स्तर से पिछले एक दशक में मात्रात्मक गिरावट आई है और गैर-जीवन बीमा पॉलिसियों का अभी एक फीसदी का आंकड़ा पार करना बाकी है। भारत की विशाल आबादी और वित्तीय साक्षरता के खराब स्तरों को देखते हुए, यथास्थिति से आगे बढ़ने की अनिवार्यता निर्विवाद है। इस कवायद में राज्य सरकारों को शामिल करने और राज्य-स्तरीय बैंकिंग समितियों के समान निकाय स्थापित करने के आईआरडीएआई के कदम से जागरूकता और दायरे के स्तर को बढ़ाने के लिए जिलेवार रणनीति बनाने में मदद मिलेगी। इस उद्योग से जुड़ी कंपनियों को भी बड़े शहरों से परे देखने की जरूरत है और ‘बीमा विस्तार’ योजना उस मात्रा को उत्प्रेरित कर सकती है जिनकी उन्हें सुविधाजनक क्षेत्र से बाहर जाकर हासिल करने की जरूरत है। इन सबसे भी आगे बढ़कर, केन्द्र सरकार को स्वास्थ्य और जीवन बीमा प्रीमियम पर 18 फीसदी के जीएसटी शुल्क पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। स्वास्थ्य संबंधी सुरक्षा खरीद सकने वाले लोग इतना ज्यादा कर चुका सकते हैं, यह धारणा एक ऐसे देश में बेमानी है जहां स्वास्थ्य संबंधी एक आपदा किसी परिवार को गरीबी रेखा से नीचे धकेल दे सकती है। आईआरडीएआई में नेतृत्व की निरंतरता सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। वर्तमान अध्यक्ष के कार्यकाल से पहले इस नियामक के शीर्ष पद पर नौ महीने तक शून्यता की स्थिति बने रहना कतई स्वीकार्य नहीं है।
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