कुछ सुरक्षात्मक उपायों के साथ, राजद्रोह के अपराध को दंडात्मक कानून में बनाए रखने की विधि आयोग की सिफारिश मौजूदा समय की उस न्यायिक और राजनीतिक सोच के खिलाफ है जो यह मानती है कि देश को अब इस औपनिवेशिक अवशेष की जरूरत नहीं। राजद्रोह को परिभाषित करने वाली आईपीसी की धारा 124 का उद्देश्य ऐसे भाषण या लेखन को दंडित करना है जो कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति नफरत या अवमानना पैदा करे या पैदा करने की कोशिश करे, या असंतोष भड़काए या भड़काने की कोशिश करे। इसकी वैधता काफी समय पहले 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखी थी, मगर इस शंका के साथ कि यह स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर संवैधानिक रूप से स्वीकार्य पाबंदी होगी। यह वैधता केवल उसी सूरत में थी जब अपराध को उन शब्दों तक ही सीमित रखा जाए जिनमें हिंसा भड़काने या सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने की प्रवृत्ति हो। हालांकि, कानून विशेषज्ञों ने ध्यान दिलाया है कि पैनल की यह रिपोर्ट इस बात पर विचार करने में नाकाम रही है कि स्वतंत्र अभिव्यक्ति का न्यायिक-विवेक तब से लेकर अब तक कितना लंबा सफर तय कर चुका है। पिछले साल राजद्रोह के लंबित मामलों को स्थगित रखते हुए, अदालत ने टिप्पणी की थी कि ‘धारा 124 की कठोरता वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है।’ केंद्र सरकार ने भी इस प्रावधान को दोबारा जांचने और इस पर पुनर्विचार करने का फैसला किया था। वक्त आ गया है कि मौलिक अधिकारों, खासकर स्वतंत्र अभिव्यक्ति, पर किसी पाबंदी की वैधता के परीक्षण के लिए इस प्रावधान पर हाल के सिद्धांतों की रोशनी में विचार किया जाए। अपनी अति-व्यापक प्रकृति को देखते हुए, राजद्रोह की परिभाषा इस तरह की जांच-परख में ठहर नहीं पाएगी।
आयोग ने राजद्रोह के बारे में अमूमन पेश की जाने वाली इन दो चिंताओं के निवारण की कोशिश की है: बड़े पैमाने पर दुरुपयोग और आज के समय में इसकी प्रासंगकिता। उसने इस घिसी-पिटी दलील को दोहराया है कि किसी कानून का दुरुपयोग उसे वापस लेने का आधार नहीं है। हालांकि, आयोग जिस बात पर विचार करने में विफल रहा वो ये है कि कानून की किताबों में इसका बना रहना मात्र इसके अनुचित इस्तेमाल (जो अक्सर मतभेद को दबाने और आलोचकों को जेल में डालने के सुचिंतित इरादे के रूप में सामने आता है) की भारी संभावना अपने में समेटे हुए है। पूर्व-अनुमति को आवश्यक बनाने की बात रिपोर्ट में कही गई है। इस बात को लेकर संदेह है कि इतने भर से राजद्रोह के मामलों में कमी आएगी। इसके अलावा, पैनल ने यह दलील दी है कि किसी चीज का औपनिवेशिक-युगीन प्रावधान होना उसे त्याग देने का आधार नहीं है। उसने देश में विभिन्न उग्रवादी व अलगाववादी आंदोलनों व प्रवृत्तियों के साथ-साथ ‘कट्टरपंथ के प्रचार-प्रसार में सोशल मीडिया की लगातार बढ़ती भूमिका’का जिक्र करते हुए दंडात्मक कानून में राजद्रोह को बनाए रखने को उचित ठहराया है। लेकिन यह इसे बनाए रखने की पर्याप्त वजह नहीं हो सकती, क्योंकि विभाजनकारी दुष्प्रचार, हिंसा भड़काने और सामाजिक समरसता प्रभावित करने के आरोपों को दूसरे दंडात्मक प्रावधानों के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है। दरअसल, सरकार को निशाना बनाने वाले भाषण या लेखन को दंडित करने के बजाय, नफरती भाषण के खिलाफ एक कारगर कानूनी ढांचे की जरूरत ज्यादा है। इस रिपोर्ट के बावजूद, सरकार को राजद्रोह के प्रावधान को खत्म करने पर विचार करना चाहिए।
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