नेपाल के मुकाबले कुछ ही देशों के भारत के साथ ज्यादा घनिष्ठ संबंध हैं क्योंकि इन दोनों देशों के बीच एक खुली सीमा है जो उनके नागरिकों को बेरोकटोक आवाजाही करने की इजाजत देता है। घनिष्ठ आर्थिक, सुरक्षा एवं सांस्कृतिक संबंध उनके इस रिश्ते की खूबी हैं। भारत एक प्रमुख व्यापार एवं पारगमन भागीदार बना हुआ है, जहां बड़ी संख्या में नेपाली लोग जीविकोपार्जन या उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं। उधर, नेपाल के साथ अच्छे रिश्ते भारत को अपने पड़ोस में सुरक्षा एवं भू-राजनीतिक मुद्दों को और ज्यादा सुगम तरीके से हल करने में मदद करते हैं। फिर भी, निकट अतीत में मुख्य रूप से कालापानी इलाके को लेकर सीमा विवाद की वजह से उनके राजनीतिक रिश्ते सहज होने के बजाय ज्यादा उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। खड्ग प्रसाद शर्मा ओली की अगुवाई वाले तेजतर्रार शासन के पतन और 2022 के चुनाव के पहले के नेपाली कांग्रेस और माओवादी गठबंधन की सत्ता में बहाली के साथ नेपाल में हुए सरकार में बदलाव ने इस मामले में जमी बर्फ के पिघलने की उम्मीदें जगाई हैं। पिछले सप्ताह नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल की चार-दिवसीय भारत यात्रा के दौरान, रिश्ते में इस कड़वाहट को नहीं कुरेदा गया और इसे अपने आप में अपेक्षाकृत बेहतर रिश्ते की ओर बढ़ने के एक सकारात्मक उपाय के रूप में गिना जा सकता है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि बिजली क्षेत्र के विकास एवं व्यापार में सहयोग के विस्तार में हुई प्रगति से आर्थिक रिश्ते को बढ़ावा मिला है। दस वर्षों के भीतर नेपाल से भारत को बिजली का निर्यात बढ़ाकर 10,000 मेगावाट करने के एक समझौते को अंतिम रूप दिया जाना, नई पारेषण लाइनों के विकास, मौजूदा पाइपलाइनों के विस्तार एवं नए टर्मिनलों के निर्माण के अलावा सिलीगुड़ी और झापा के बीच पेट्रोलियम आपूर्ति पाइपलाइन के निर्माण के लिए हुआ एक समझौता ज्ञापन इस दौरे के अन्य सकारात्मक बिंदु थे। लेकिन श्री दहल की यात्रा का मुख्य आकर्षण भारतीय भूभाग से होकर बांग्लादेश को नेपाल की पनबिजली के निर्यात के भारतीय प्रस्ताव को आगे बढ़ाने का एक समझौता था।
श्री दहल की यात्रा की सफलता का आकलन तब किया जाएगा जब ये समझौते फलीभूत होंगे, लेकिन रेल संपर्क और जलविद्युत परियोजनाओं जैसे भारतीय उपक्रमों में हुई हालिया प्रगति उत्साहवर्द्धक होनी चाहिए। नई दिल्ली का विकास परियोजनाओं पर केंद्रित नजरिए के साथ रिश्तों में विस्तार पर जोर, नेपाल में बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में शोरगुल भरे लेकिन कम व्यावहारिक चीनी प्रयासों के ठीक उलट है। इसके अलावा, यह हाल के वर्षों में नेपाल की जटिल आंतरिक राजनीतिक समीकरणों में कम दखलंदाजी करने वाला नजरिया अपनाने के भारत सरकार के रवैये के अनुकूल है। खासतौर पर पिछले दशक के मधेसी आंदोलन में भारतीय हस्तक्षेप की धारणाओं के बाद, जिसमें अति-राष्ट्रवादियों ने भारत -विरोधी बयानबाजी को हवा दी थी। आर्थिक संबंधों पर जोर दिए देने से द्विपक्षीय रिश्ते जहां अच्छे बने रहने चाहिए, वहीं दोनों देशों की सरकारें सीमा के मुद्दे को यूं ही ठंडे बस्ते में नहीं डाले रह सकती हैं और इसके सुलझ जाने की उम्मीद नहीं कर सकती हैं। आगे बढ़ते हुए इस मुद्दे पर चर्चा करने और स्थायी समाधान तलाशने के तौर-तरीके के बारे में सोचना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए।
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